रविवार, 26 अगस्त 2012
आपका ऐजेंडा क्या है नेता जी ?
आपका
ऐजेंडा क्या है नेता जी ?
गुरुवार, 23 अगस्त 2012
चलो अब ईद मनायें पहले की तरह
चलो अब ईद मनायें
पहले की तरह
कैसे संयोग की बात है कि अभी चार दिन पहले पूरे
देश ने जश्न ए आज़ादी मनाया है और अब ईद आगई है ईद का चाँद नजर आते ही बाजारों में
खरीदारी के लिये अक़ीदतमंदों की भीड़ लग गई । त्योहार पर बाजार में खरीदारी होना
स्वभाविक है । कोई कपड़े खरीद रहा है तो कोई खिलोने कोई सिवईंया क्योंकि ईद पर एक
चलन बन गया है नये कपड़े पहनने का । हम लोगों ने त्योहार को भी अब फैशन शो बनाकर
रख दिया है । एक सवाल यहां पर मेरे मन में उठ रहा है कि क्या ईद केवल नये कपड़े
पहनने , इत्र लगाने से ही मनायी जाती है ? नहीं ईद का मतलब है
खुशियां बांटना बच्चों में बुजुर्गों में मिस्कीनों में इन सब में खुशियां बांटना
उन्हें खुशियों का एहसास दिलाना । जिसकी आज पूरे देश को जरूरत है सारा देश इस वक्त
धार्मिक व जातीय उन्माद के शोलों से झुलसा हुआ है कहीं असम जल रहा है तो कहीं पर
अभी दंगों के जख्म ताजा हैं । अभी बरेली व , कुण्डा दंगों की इस आग से बाहर निकले
हैं जानी व माली दोनों तरह का नुकसान उठाया है । मगर असम के कई जिलों में अब भी
हिंसा जारी है । मतलब कि नफरत फैलाने वाले अपने मकसद में कामयाब होते नजर आ रहे
हैं कभी आजाद मैदान के बहाने तो कभी बंगलूर में खौफ फैलाने में कामयाब हो गये । कल
लखनऊ , कानपुर , इलाहबाद , में कुछ असमाजिक तत्वों ने एसा घिनोना काम किया है
जिसकी सारे देश में निंदा हो रही है , बस इसी की जरूरत है जो अमन के दुश्मन हैं
उनके हौसले अपने आप पस्त हो जायेंगे , इस बार यह ईद पहली ईद से कुछ जुदा है । इस ईद पर अपने आसपास
के उन बुर्जुगो का भी हमे ध्यान रखना होगा जिन का इस दुनिया में और कोई नही है। उन
गरीब बच्चो को भी नही भूलना होगा जो यतीम है। उन बेवाओ के घर जकात और फितरा हमे
पूरी जिम्मेदारी के से पहुचाना होगा जो घरो में इज्ज्त से गुजर बसर कर रही है। तभी
ईद की खुशियो में हम शरीक होने का हमे हक है।
इस बार हमें ईद ईद की तरह मनाना है केवल
नये वस्त्र धारण करके नहीं बल्कि हमें मनाना है इसे उनके लिये जिनके परिवार दंगों
में मारे गये हैं जो रिलीफ कैंपों में रह रहे हैं जिन्होंने अपनों को दोस्तों को रिश्तेदारों
को खोया है जिनकी आँखें आज खुशियों की तलाश में दरवाजों पर जा टिकी हैं मगर खुशी
उन्हें दूर तक दिखाई नहीं दे रही है । हमें उन परिवारों को ईद के बहाने खुशियों
में शामिल करना है यह ठीक है मौजूदा हालात पहले से खराब हैं , मगर इतने भी नहीं कि
उन्हें सुधारा ना जा सके यही तो एक अवसर है फिरकापरस्त ताकतों को, दंगाईयों, बलवाईयों
को जवाब देने का हमें इसे गंवाना नहीं बल्कि इसका प्रयोग उन ताकतों के खिलाफ करना
है जिन्होंने पूरे देश की फिजा में जहर घोल रखा है । बुरा वक्त सब पर आता है हमें
उससे डरना नहीं चाहिये बल्कि उसका मुकाबला हिम्मत के साथ करना चाहिये ।याद करो
इतिहास बताता है वो भी तो ईद थी जब हमारी आजादी के दीवाने हमारी आजादी के लिये लड़
रहे थे , जब हमने चीन से जंग की थी , जब हमने पाकिस्तान को धूल चटाई थी । तब वह
लड़ाई हमारे दुश्मनों से थी लेकिन इस बार की लड़ाई हमारे अपने उन भाईयों से है जो
भूले से गलत राहों पर चले गये हैं जिनका लौट कर आना बहुत जरूरी है । फिर वही
जुम्मन मियाँ होंगे वही ठाकुर साहब जो क साथ मिलकर ईद मनायेंगे सिवईयां खायेंगे एकता
का कौमी यकजहती का पैगाम सारे देश को देंगे और ईद फिर ईद की तरह मनायी जायेगा शहर
की आग को गाँव तक नहीं आने दिया जायेगा और उस आग को बुझाने की हर हाल में कोशिश की
जा रही है खुदा कामयाबी जरूर देगा । तो चलो फिर तैयार हो जाओ ईद मनाने के लिये ,
खुशियां मनाने के लिये । यह कहकर आपको ईद की दिली मुबारकबाद आप ...........
एसी हर साल खुशी आये मयस्सर सबको
मेरी हर सांस कहे ईद मुबारक सबको ।
आपका वसीम अकरम
मंगलवार, 14 अगस्त 2012
वो मौजे सर पटखटती हैं ,जिन्हें साहिल नहीं मिलता
वो मौजे सर पटखटती हैं ,जिन्हें
साहिल नहीं मिलता
आज सारा देश आजादी के जश्न में खुशियां
मना रहा है मनायें भी क्यों नहीं आखिर राष्ट्रीय पर्व जो ठहरा । लेकिन कुछ सवालात
आपकी अदालत में रखना चाहता हूँ कि क्या यह वही आजादी है जिसकी आजादी के लिये हमारे
नोजवानों ने , किसानों , मजदूरों, बुनकरों ने मिलकर लड़ाई लड़ी थी एक अत्याचारी शासन के खिलाफ ? हम लोगों को देश प्रेम केवल 15 अगस्त और 26 जनवरी को ही क्यों याद आता है ? मैंने देखा है गाँवों में लोग इस दिन
भी सुबह उठकर अपने काम काज में लग जाते हैं उनके पास इतनी भी फुर्सत नहीं कि वो 52 सेकेंड देश के लिये निकाल लें केवल गाँव का प्रधान या कुछ दो चार बुजुर्ग व्यक्ति
जो अंग्रेजी शासन से वाकिफ हैं जिनके जिस्म पर आज भी गुलामी के दाग लगे हैं जिनके
जख्म अभी तक मरहम तलाश कर रहे हैं बस वे चंद लोग गाँव की प्राईमरी पाठशाला में
जाकर झंडा फहराकर कुछ दो चार बातें अपने माजी की बताकर चले आते हैं । तो फिर इसको
क्या कहा जाये क्या यही है उन शहीदों की कुर्बानी का नतीजा जो जिये वतन के लिये और
शहीद हुए तो वतन के लिये हमारे लिये अपने आने वाली नस्लों के लिये उन्हें हमने
क्या दिया ?
देश पर अपने दोनों बेटे व खुद को
कुर्बान करदेने वाले बहादुर शाह जफर की मजार आज भी चीख चीख कर कह रही है कि उसके
लिये दो गज जमीं का इंतजाम कुए यार में क्यों नहीं हो पाया ? वो टीपु हां वही टीपु सुल्तान जो आजादी
का पहला मुजाहिद था उसका सामान क्यों नीलाम किया गया ? हम क्यों भूल गये भगत सिंह, को ऊधम सिंह को , मौलाना मोहम्मद अली जोहर व शोकत अली
जोहर को ? जिनके बुजुर्गों का कभी लाल किला ताज
महल होता था वे आज बंगाल में क्यों खाक छान रहे हैं उन्हें दो रोट के लाले क्यों
हैं । क्या आजादी का मतलब शहीदों के एहसानों को उनके बलिदान को भुला देना है ...
नहीं । अभी तो आजाद हुए 100 साल भी नहीं हुए इतनी जल्दी हमने
शहीदों को भुला दिया ।
और बनाया एक एसा लोकतंत्र , लूटतंत्र जिसमें ना इंसाफ है सुनवाई
जहां अन्याय तो किसी पर भी हो सकता है मगर न्याय की आशा रखना अपने धोखा करना है ।
जहां दिन प्रतिदिन घोटाले होते हैं एक एक लूटेरे के हाथ कम से कम दो लाख करोड़ का
धन लगता है और उसी धन का प्रयोग कर वह सब कुछ खरीद लेता है जज , वकील , अपील . दलील सब उसके इशारों पर काम करते हैं । देश के हर तीसरे आदमी
को दो जून की रोटी के लाले हैं लेकिन सरकार के गौदामों में पड़ा अनैज सड़ जाता है
मगर उसे गरीबों में बांटा नहीं जाता । इसी का लाभ उठाकर नकस्लवाद जन्म लेता है , आतंकवाद जन्म लेता है चंबल की घाटी बनता है । इसे क्या कहा जाये कि
व्यसथा खराब है सिस्टम में कमजोरी है ......
ना ही व्यवस्था खराब और ना हमारे सिस्टम में कहीं कोई दोष है बल्कि सच्चाई
यह है कि सिस्टम को चलाने वाले खराब हैं । दर अस्ल आजादी मिलने के बाद हम लोग
स्वार्थी हो गये और इसका लाभ उठाकर राजनेता ने अपनी तिजोरियां स्विस बैंकों को भर
दिया । क्या आज उसी क्रांती की जरूरत नहीं जो 1857
में मेरठ की जमीन से उठी थी जिसमें किसानों ने मजदूरों ने अपनी दरातियों को
पिघलाकर उसके हथियार बना डाले थे और तानाशाही के विरुद्ध अन्याय के विरुद्ध आवाज
उठाई थी । आज भी वही दौर है वही जनता जिसपर जुल्म हो रहा है मगर दुःख होता तो यह
देख कर कि उसके लिये कोई आवाज उठाने वाला नहीं जो हैं वह भी सियासी लुटेरों से
मिले हुए हैं चाहे बाबा हो या अन्ना सब अपने फायदे के लिये लड़ रहे हैं जनता के
फायदे के कोई नहीं लड़ रहा । तो क्या यह समझ लिया जाऐ कि अब हमारे पास कोई ऐसा
लीडर नहीं जो हमारे लिये लड़ सके .... याद रखना
मुसाफिर अपनी मंजिल पर पहुंच कर चैन
पाते हैं
वो मौजे सर पटखती हैं जिन्हें साहिल
नहीं नहीं मिलता ।
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