सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

तो अफजल निर्दोष था


वसीम अकरम
अफजल गुरु की पत्नि और उसकी माँ 
अफजल गुरु का बेटा अपनी माँ और दादी के साथ 



13 दिसंबर 2001 को संसद पर हमला हुआ ये हमला किसने और क्यों करवाया किस उद्देश्य की प्राप्ती के लिये कराया इसका कोई ठोस सबूत आज तक नहीं मिल पाया। एक हारे हुऐ योद्धा की तरह आरोप फिर से पाकिस्तान के सिर पर थोप दिया गया। और इस हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु को फांसी दे दी गई। ये एक ऐसा मुकदमा था जिसमें आरोपी के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिले इस मुकदमें में पुलिस के बयानों को ही ठोस सबूत मान लिया गया। और गुरु को फांसी के फंदे पर झुला दिया गया। जिसकी खबर सुनकर पूरे देश में ( अगर कश्मीर को छोड़ दें ) मानो होली, दीवाली जैसा माहौल हो गया। राजनैतिक गलियारों में चर्चाएं शुरु हो गई कि कांग्रेस ने बाबा रामदेव, भाजपा को तो पैदल ही कर दिया यानी कि उसके हाथ से एक और मुद्दा छीन लिया। और वह मीडिय़ा जो दिल्ली में दिये गये नरेंन्द्र मोदी के भाषण को लेकर उसका राग अलाप रहा था अब उसे भी नया मुद्दा मिल गया। तरह तरह की चर्चाऐं चारों ओर हो रही हैं मगर कहीं पर ये सवाल नहीं उठ रहे कि क्या अफजल गुरु वास्तव में संसद पर हुऐ हमले का दोषी था ? क्या यह कृत्य भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी को ढंकने और नागरिकों को बरगलाने की चेष्टा तो नहीं है ? या अगर देश भर के बुद्धिजीवियों ने प्रोफेसर गिलानी की गिरफ़्तारी का विरोध न किया होता तो उन्हें भी ठिकाने लगा दिया जाता ? जब प्रसिद्ध वकील और पूर्व कानून मंत्री राम जेठमलानी ने अफजल गुरु का मुकदमा लड़ने की इच्छा क्यों जाहिर की थी ? और उसके बाद मुंबई स्थित उनके दफ्तर पर बजरंगदल और शिव सेना के लोगों ने पथराव किया बाद में जेठमलानी को खामोश करने के लिये उन्हें भाजपा ने राज्य सभा में क्यों भेजा ? हो सकता है संसद पर हमले उन्हीं दहश्तगर्दों ने कराया हो जो इन दिनों मक्का मस्जिद और समझोता एक्सप्रेस बम कांड के आरोप में जेल में बंद हैं । हो सकता है इसके पीछे वही राजनीतिक दल हो जो बापू के हत्यारे नाथूराम गोडसे की पूजा करता है उसकी किताबें गांधी वध क्यों अपने पार्टी कार्यालय में रखते हैं और उनका प्रचार प्रसार करते हैं।
अफजल गुरु जिंदगी के उस मोड़ जिसमें आकर अधिकतर लोग फिसल जाते हैं उस दौर में भी अफजल गुरु ने कोई गलत कदम नहीं उठाया उसने दिल्ली आकर ट्यूशन दिये और अपनी जीविका चलाने के लिये कई जगह नौकरी भी की । गालिब की शायरी और माईकल जैक्सन के मुरीद अफजल संसद पर हमला कैसे कर सकता है ? वह तो बचपन से ही देश प्रेम के नगमे गाता था कश्मीर की वादियों में डांस करता था अपने पिता के सपनो को पूरा करने के लिये उसने एमबीबीएस की पढ़ाई की, उसके बाद प्रशासनिक सेवा में आने के लिये आईएएस की तैयारी कर रहा था, फिर उसने ऐसा क्यों करेगा ? उसके दोस्त कहते हैं कि वह हिंसा का हमेशा विरोधी रहा वहा हमेशा खून खराबे के खिलाफ था ? वह तो स्कूल में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर और गणतंत्र दिवस पर पूरी ताकत और जज्बे के साथ हिस्सा लेता था फिर उसने ऐसा क्यों किया ? या वह ऐसा नहीं कर सकता ? ये बात ठीक है उसने 1990 में कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा एक कार्वाई के दौरान महिलाओं के साथ किये गये बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाई थी। ये सब जानते हैं कि वह शिक्षित था और आईएएस की तैयारी कर रहा था तो हो सकता है वह आईएएस की तैयारी केवल इसी लिये कर रहा हो ताकि वह 1990 के दोषी सेना के उन जवानों को सजा दिला सके जिन्होंने वहां कश्मीरी महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। इसत तरह के सवाल किसी के जहन में शायद ही उठ रहे हों क्योंकि उसे हमारी मीडिया ने पहले ही आतंकवादी घोषित कर दिया था। क्या आज तक हमारी इंटेलीजेंस व्बूरो ने इस बात का पता लगाने की कोशिश की इस हमले के पीछे आखिर किसका हाथ है, इसमें कोई घर का भेदी भी तो हो सकता है। और अगर ये भी मान लिया जाये कि अफजल गुरु आतंकवादी था उसके आतंकवादी बनने के पीछे उसका एक माजी रहा है ये सब जानते हैं और समाचार चैनलों पर एंकर चीख चीख कर कह रहे हैं कि वह 1990 के हादसे के बाद चरमपंथियों के साथ शामिल हो गया था। उससे पहले वह एक सीधा सज्जन इंसान था, अफजल को तो सजा मिल गई अब सजा कितनी सही मिली यह तो अफजल और खुदा ही जानता है और वो लोग जानते हैं जिन्होंने उसे फांसी पर झुलाया है। लेकिन सवाल वही सजा केवल अफजल के लिये क्यों उन सेना के जवानों के लिये क्यों नहीं जिनके अत्याचार ने उसको आहत किया था। उन पीएसी के जवानों को फांसी क्यों नहीं जिन्होंने 1987 में उत्तर प्रदेश के मेरठ में नरसंहार किया था ? ये वे सवाल हैं जो हर इंसाफ पसंद के जहन में घूम रहे हैं लेकिन अफजल की मौत पर जश्न मनाने वालों की तादाद ज्यादा होने की वजह से या अपने ऊपर किसी आतंकवादी संगठन का आरोप लगने की वजह से लोगों की जुबान से बाहर नहीं आ रहे हैं।

वसीम अकरम
स्वतंत्र युवा पत्रकार , मेरठ

तो अफजल निर्दोष था

रविवार, 25 नवंबर 2012

मुनव्वर राना जो उर्दू में गजल कहता है और हिंदी मुस्कुराती है।



26 नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली में पैदा हुऐ आलमी शोहरतयाफ्ता शायर मुनव्वर राना किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। इनके बुज़ुर्ग बरसों से रायबरेली में मदरसे में पढ़ाने का काम करते थे मगर जब मुल्क का बँटवारा हुआ तब मुनव्वर राना के दादा दादी पकिस्तान चले गये और मुनव्वर राना के अब्बू मरहूम सैयद अनवर अली अपनी ज़मीं से मुहब्बत के चक्कर में पकिस्तान नहीं गये । हालात ने उनके हाथ में ट्रक का स्टेरिंग थमा दिया और इनकी माँ मजदूरी करने लगी अच्छा भला परिवार मुल्क के टुकड़े होने के बाद ग़ुरबत की चाद्दर में लिपट गया। ये वो दिन थे जब उनकी खेलने की उम्र थी लेकिन हालात ने मुनव्वर राना को बचपन में  ही जवान कर दिया। मुनव्वर राना ने अपनी किताब बदन सराय में लिखा है कि मेरे अब्बू ट्रक चलाते थक जाते थे उन्हें नींद आती थी और मुमकिन है उन्होंने बहुत से  ख़्वाब देखें हो मगर अम्मी से नींद कौसों दूर थी लिहाज़ा अम्मी ने कभी ख़्वाब नहीं देखे। मुनव्वर साहेब के वालिद ने 1964 में अपना ट्रांसपोर्ट का छोटा सा कारोबार कलकत्ते में शुरू किया और 1968 में मुनव्वर राना भी वालिद के पास रायबरेली से कलकत्ते आ गये  मुनव्वर साहब ने कलकत्ता के मोहम्मद जान स्कूल से हायर सेकेंडरी और उमेश चन्द्र कालेज से बी.कॉम.किया । इनके अब्बू शायरी के शौकीन थे सो शायरी की तरफ़ झुकाव वाज़िब था मुनव्वर साहब के वालिद नहीं चाहते थे कि वे शायर बने पर तक़दीर के लिखे को कौन टाल सकता है जदीद (आधुनिक ) शायरी को नया ज़ाविया जो मिलना था , ग़ज़ल जो मैखाने से कभी बाहर नहीं निकली थी , जो कोठों से कभी नीचे नहीं उतरी थी ,महबूब के गेसुओं में उलझी ग़ज़ल को नया आयाम जो मिलना था। मुनव्वर न चाहते हुए भी शायर हो गये, शुरूआती दिनों में वे प्रो. एज़ाज़ अफ़ज़ल साहेब से कलकत्ते में इस्लाह लेते  थे और उनका तख़ल्लुस था ' आतिश'  यानी क़लमी नाम था मुनव्वर अली'आतिश' बाद में लखनऊ में उनकी मुलाक़ात वाली आसी साहेब से हुई जो मुनव्वर राना के बाकायदा उस्ताद हुए। मुनव्वर अली"आतिश"को नया नाम मुनव्वर राना उनके उस्ताद वाली आसी ने ही दिया मुनव्वर राना के बारे में वाली आसी साहब ने पीपल छांव में लिखा है कि वह जहां जाता है लोग उसे सर आंखों पर उठा लेते हैं वह सबका चहीता बन जाता है ये किसी एक शहर या कस्बे का किस्सा नहीं बल्कि पूरे हिंदुस्तान का यही हाल है फिर मैं सोचता हूं कि शोहरतें सबके मुकद्दर मैं कहां होती हैं ।
उन्हें शायरी और गजल से किस हद तक मौहब्बत है इस बात का अंदाजा सिर्फ इसी लगाया जा सकता है कि रायबरेली उनके घर का नाम भी गजल गांव रख दिया है और उन्होंने अपने ट्रांसपोर्ट का नाम भी गजल गजल ट्रांसपोर्च रखा है। सियासत पर तंज करते हुऐ मुनव्वर राना कहते हैं कि –
सियासत किस हुनर मंदी से सच्चाई छिपाती है
कि जैसे सिसकियों का दर्द शहनाई छिपाती है
उनसे मिलिये जो यहां फेरबदल वाले हैं
हमसे मत बोलिये हम लोग गजल वाले हैं।
उनकी शायरी में रिश्तों की एक ऐसी सुगंध है जो हर उम्र और हर वर्ग के आदमी के दिलो दिमाग़ पर छा जाती है। गज़ल जिसका शाब्दिक अर्थ है महबूब से बातचीत। अधिकतर शायरों ने औरतको सिर्फ़ महबूबा समझा। मगर मुनव्वर राना ने औरत को औरत समझा। औरत जो बहन है, बेटी है, और माँ होने के साथ साथ शरीके-हयात भी है। उनकी शायरी में रिश्तों के ये सभी रंग एक साथ मिलकर ज़िंदगी का इंद्रधनुष बनाते हैं। वे हिंदुस्तान के ऐसे अज़ीम-ओ-शान शायर हैं जिसने माँकी शख़्सियत को ऐसी बुलंदी दी है जो पूरी दुनिया में बेमिसाल है। माँ के लिए लिखे गये उनके शेर माँ की ममता के लहराते सागर से निकाले गये बेशकीमती मोती है जिन्हें उन्होंने माँ  नामक संकलन की अंजुलि में भर, दुनिया की हर माँ के चरणों में अर्पित कर दिया है। मुनव्वर राना कहते हैं कि मैं दुनिया के सबसे मुकद्दस और अज़ीम रिश्ते का प्रचार सिर्फ इसलिए करता हूँ कि अगर मेरे शेर पढ़ कर कोई भी बेटा माँ की खिदमत और ख्याल करने लगे तो शायद इसके बदले में मेरे कुछ गुनाहों का बोझ हल्का हो जाए
सच्ची शायरी के तरफदार मुनव्वर राना ने हमेशा घर आंगन की शायरी की है। जहां दुनिया भर के शायर औरत को सिर्फ महबूबा की नजर से देखते हैं वहीं मुनव्वर राना ने अपना महबूब अपनी माँ को माना है। उनकी शायरी में कैफी आजमी से लेकर अली सरदार जाफरी तक शामिल हैं। भूखा किसान , बहनों की राखी, मजदूर का पसीना, ट्रेन में झाड़ू लगाते बच्चे, बालू पर खेलते बच्चे, इन सब मौजू पर उसने शायरी की है। और यही वजह है कि ये सारी बातें उन्हें बाकी शायर से अलग बनाती हैं। गजल पढ़ते वक्त जब कभी कभी गुर्राई हुयी आवाज में राना का यह कहना कि आप दाद दें या ना दें मुझे मालूम है कि मैं शायर अच्छा हूं लोगों को तालियां बजाने पर मजबूर कर देता है। स्टेज पर पहुंचकर जब वो शेर सुनाता है तो यकायक लोगों की आंखें भीग जाती हैं। मुनव्वर राना ने सिर्फ माँ ही नहीं बल्कि जहां कहीं जुल्म हुआ वहां अपने अंदर के शायर को जिंदा रखा गुजरात में हुऐ नरसंहार पर 2002 में उन्होंने कहा कि
दुश्मनी ने काट दी सरहद पर सारी जिंदगी
दोस्ती गुजरात में रहकर मुहाजिर हो गई।
जमाने में बढ़ती हुयी फिरका परस्ती उन्हें सताती है, तकलीफ देती है, तो मुल्क की हिफाजत उन्हें इबादत के वक्त भी याद रहती है वतन से मौहब्बत देखनी हो तो उनका शेर देखीये।
मदीने तक में हमने मुल्क की खातिर दुआ मांगी
कोई ये पूछले इसको वतन का दर्द कहते हैं ।
या फिर
ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गई
अब तो छतें भी हिंदु मुसलमान हो गई।
गंगा जमुनी तहजीब की इससे अच्छी मिसाल और क्या पेश की जा सकती है।
सगी बहनों का जो रिश्ता है हिंदी और उर्दू में
कहीं दुनिया की दो जिंदा जबानों में नहीं मिलता
वे आगे कहते हैं
लिपट जाता हूं माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है।
भाजपा, आरएसएस द्वारा मुसलमानों को पाकिस्तानी कहने पर उसके अंदर का शायर चीख पड़ता है और वह कह उठता है कि –
बदन में दौड़ता सारा लहु ईमान वाला है
मगर जालिम समझता है कि पाकिस्तान वाला है।
बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के एक बर्तन पर आईएसआई लिक्खा है
माँ पर  कहे उनके शे'र पूरी दुनिया  में मक़बूल है :-----
चलती - फिरती हुई आँखों में अजाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, माँ देखी है

तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे फ़लक
मुझको अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी

बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान छुआ
उठाया गोद में माँ ने तो आसमान छुआ

ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर लौटूं मेरी माँ सजदे में रहती है
बटवारे के दर्द को मुनव्वर राना ने बखूबी समझा है और एक किताब की शक्ल में एक लंबी गजल जिसमें 500 शेर हैं लिख डाली। जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों में खूब मकबूल हुयी मुनव्वर राना ने इस गजल में गांव, बस्ती, शहर, जंगल, जमीन, बचपन सभी का इस तरह जिक्र किया है कि पढ़ते वक्त आंखें का नम हो जाना लाजिमी हो जाता है।
मुहाजिर है मगर हम एक दुनिया छोड़ आये है
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आये है
वुजू करने को जब भी बैठते है याद आता है
कि हम उजलत में जमुना का किनारा छोड़ आये है
तयम्मुम के लिए मिट्टी भला किस मुंह से मांगें
कि हम शफ्फाक़ गंगा का किनारा छोड़ आये है
हमें तारीख़ भी इक खान - - मुजरिम में रखेगी
गले मस्जिद से मिलता एक शिवाला छोड़ आये है
ये खुदगर्ज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आये भतीजा छोड़ आये है
जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आये
जाने कितनी आंखों को छलकता छोड़ आये है
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं
मुनव्वर राना की अब तक 18 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें से 17 गजल संग्रह और एक गध है उन्होंने अपनी पहली प्रकाशित पुस्तक का नाम भी गजल गांव रखा , इसके अलावा मुहाजिरनामा,बगैर नक्शे का मकान, कहो जिल्ले इलाही से, फिर कबीर, पीपल छांव, मोर पांव, बदन सराय, माँ, सफेद जंगली कबूतर आदी उनकी प्रमुख कृतियों में से एक हैं। एक बार भाजपा सांसद तरुण विजय ने उन्हें राष्ट्र कवि घोषित करने की बात कही। लेकिन अफसोस राष्ट्र कवि तो दूर की बात हकूमत ने उन्हें आज तक किसी बड़े सम्मान से नहीं नवाजा। खुद मुनव्वर राना ने अपनी पुस्तक नये मौसम के फूल में इस दर्द को बयां करते हुए कहा कि उर्दू वालों ने मेरी शायरी, शख्सियत और किताबों को नजरअंदाज किया है। और असल दुख तो उस वक्त होता है जब हिंदी वाले भी मेरी किताबों के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं।