शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

कुछ सवाल देश की जनता से


कुछ सवाल देश की जनता से
किसकी नजर लग गई मेरे वतन को जब ईद उल फितर आई थी तो असम समेत देश के कई हिस्सो में नफरतों के शोले भड़क रहे थे । अब ईद उल जुहा आई है तो फैजाबाद जल उठा। आखिर कौन हैं वे लोग जो अम्न के दुश्मन हैं जो पहरेदारियों को धता बताते हुए जहर घोलने में काम हो जाते हैं। अब तो हर त्यौहार पर डर रहता है कि कहीं इंसानियत का खून ना बह जाये कहीं फिर रिश्ते तार तार ना हो जायें । क्योंकि कथित मजहबी मजदूर मौके की तलाश में रहते हैं उन्हें मौका चाहिये होता है जहर घोलने का। जबकि त्यौहार तो आपसी सोहार्द के लिये होते हैं फिर इन पर खून खराबा क्यों ? अगर लड़ाई ही करनी है तो उसके लिये मुद्दे बहुत हैं उन पर लड़ो बेरोजगारी है भुखमरी है भ्रष्टाचार है इन मुद्दो पर क्यों खून नहीं खोलता ? मुझे हैरानी होती है दंगो की खबर सुनकर हैरानी इस लिये कि । भारत में रामलीला में दहन के लिये रावण का पुतला मुसलमान बनाते हैं दीपावली के पटाखों से लेकर होली की पिचकारी तक सबमें एक दूसरे की भागीदारी होती है । फिर भी दंगा हो जाता है क्यो ?  
मेरे देशवासियों अभी वक्त है समझ जाईये अपने बोद्धिक स्तर को ऊपर उठाईये हालात को बदला जा सकता है जगह जगह फूट और हिंसा का ही फायदा उठाया था अंग्रेजो ने और 250 साल टिक गये। अब इस फूट का फायदा मौजूदा सरकार उठा रहीं हैं पिछले 65 सालों से और उठाती रहेंगी उन्हें मालूम है अपनी जनता का बोद्धिक स्तर बकौल मुनव्वर राना
तवायफ की तरह अपनी गलतकारी चेहरों पर
हकूमत मंदिरों मस्जिद का झगड़ा डाल देती है
जगह - जगह हिंसा, दंगा, लूट, आगजनी हमें अपने पड़ोसी देशों से सबक लेना चाहिये पाकिस्तान को देखों, अफगानिस्तान को देखो क्या बच गया वहां पर ? वहां भी धर्मांधता की लड़ाई है रोजाना सैंकड़ों जानें धर्म की बलि चढ़ जाती हैं। और अब यही यहां पर हो रहा है जरा सी बात पर खून सड़को पर बह जाता है। बेनजीर भुट्टो की शहादत पर वसीम बरेलवी ने कहा था ....
ये नफरत है जिसे लम्हे में दुनिया जान लेती है
मौहब्बत का पता लगते जमाने बीत जाते हैं ।


शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

आपका ऐजेंडा क्या है नेता जी



पिछले दिनों जब पूर्व राज्य सभा सांसद व पत्रकार शाहिद सिद्दिक़ीने नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू लिया था तो सपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया , उस वक्त भी मैंने यह सवाल उठाया था कि जब गुजरात के ब्रांड अंबेसेडर अमिताभ बच्चन की पत्नि जया बच्चन सपा से बाहर नहीं निकाली गई तो फिर शाहिद सिद्दिकी को ही क्यों बाहर निकाला गया मगर आपने शाहिद को बाहर निकाल कर तो उसके कार्य की सजा उन्हें दे दी मगर आप को सजा कौन दे आपके पास तो अपनी पार्टी सिंबल है आपको तो बस जनता ही सजा दे सकती है । जो 2014 में होने जा रहा है आपका मुस्लिम प्रेम इस तस्वीर में साफ दिखाई दे रहा है जिसमें आप उसी मोदी से हाथ मिला रहे हैं जिसका साक्षात्कार करने पर आपने शाहिद सिद्दिकी को बाहर का रास्ता दिखाया था । क्या शाहिद सिद्दिकी को निकालने का सपा पहले ही मसौदा तैयार कर चुकी थी क्योंकि शाहिद सिद्दिकी पहले सपा में थे फिर बसपा में गये वहां उन्होंने बिजनौर लोक सभा सीट से चुनाव लड़ा जिसमें हार का सामना करना पड़ा फिर लोकदल में आगये केवल इस गरज से कि उन्हें कोई ना कोई बड़ा पद मिल जायेगा लेकिन जब वहां भी दाल ना गली तो फिर से सपा का दामन थामा और यूपी चुनाव के दौरान सपा का खूब प्रचार किया । जब यूपी में सपा को बहुमत हासिल हो गया तो सपा को लगा कि अब शाहिद सिद्दिकी को राज्य सभा भेजना पड़ेगा जो सपा चाहती नहीं थी इसीलिये शाहिद को बकरा बनाना पड़ा । लेकिन आपका मुस्लिम प्रेम और मोदी प्रेम किसी से छिपा नहीं है । सपा ने कहने को आजम खान को वरीयता दी है लेकिन जो लाभ के पद थे जैसे शिक्षा मंत्रालय अखिलेश यादव ने अपने पास रखे ताकि इसमें आजम खाँ का कोई हस्तक्षेप ना रहे । यानी जो भी उर्दू अध्यापकों की भर्ती हो उसमें यादवों को ही ठूंसा जाये एसा ही सपा के पिछले शासनकाल में हुआ था जिन पर उर्दू लिखना तक नहीं आता था उन्हें उर्दू अध्यापक नियुक्त किया गया जो आज भी कार्यरत हैं । आपके मोदी से हाथ मिलाने किसी को आपत्ती नहीं मगर जब यही कार्य एक पत्रकार नेता करे तो आप उसे बाहर करें यह तो सरासर बेमानी है नेताजी है । आप कल्याण सिंह गोद में बैठे , आपने साक्षी महाराज को राज्य सभा भेजा । लेकिन फिर भी आप ढ़ोंग करते हैं कि सपा सेक्यूलर है भला कैसे क्या इस तरह कि कुंडा ( प्रताप गढ़ )में निशाना बनाकर मुसलामानों के साथ लूट पाट की गई जान व माल का नुकसान पहुंचाया गया लेकिन कार्रावाई किस पर हुई आप यह भी जानते होंगे । सपा के कद्दावर नेता आजम खाँ मेरठ में सरेआम शहर काजी की तोहीन करें और आपने उन पर कोई एक्शन नहीं लिया क्या ये है आपका मुस्लिम प्रेम व सैक्यूलरज्मि मायावती की मूर्ती टूटती है 24 घंटे में लग जाती है मगर मलियाना हाशिमपुरा के 1987 के दंगा पीड़ि आज भी न्याय की तलाश में कोर्ट कचहरियों के चक्कर लगा रहे हैं कमसे कम उनकी तो सुनी जाती । मगर नहीं आपको 2014 दिख रहा है यानी गोद के छोड़कर आप जो पेट में है उसकी आस लगाये बैठे हैं मगर पहले गोद वालो की तो हिफाजात करो अगर इनकी आप ठीक से हिफाजत कर पाये तो पेट का यानी 2014 भी सपा का होगा और अगर इसमें अगर कहीं पर चूक हुई तो आपसे उत्तर प्रदेश भी जाता रहेगा । आपने जिस मोदी का सहारा लेकर शाहिद को बाहर किया है उसी मोदी से आप गले मिलो इसे कोई भी सैक्यूलर इंसान बर्दाश्त नहीं करेगा ।

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

ऐ मौत तूने मुझको ज़मींदार कर दिया



50 साल से उर्दू अदब की खिदमत करने वाले मशहूर शायर मुजफ्फर रज्मी का पिछले माह 19 सितंबर को निधन हो गया वे 76 साल के थे । मुजफ्फर रज्मी का जन्म शामली के कैराना में 1 अगस्त 1936 को हुआ था । घर वालों ने इनका नाम मुजफ्फर इस्लाम रखा जो शायर बनने के बाद मुजफ्फर रज्मी हो गया । और फिर इसी नाम ने मुजफ्फरनगर के कैराना को विश्व में पहचान दिलाई । लेकिन रज्मी साहब अपनों के बीच गुमनाम जिंदगी जीते रहे। पूरा जीवन मुल्क की खिदमत करने बावजूद हिंदुस्तानी सरकार ने उन्हें काई भी पुरस्कार नहीं दिया। हालांकि मुजफ्फर रज़्मी को 2011 में जिला प्रशासन मुजफ्फरनगर द्वारा फख्रे मुजफ्फरनगर पुरस्कार से पचास हजार रुपए की आर्थिक सहायता देकर जरूर सम्मानित किया गया था।
फकीराना अंदाज में जिंदगी गुजारने वाले मुजफ्फर रज्मी ने यूं तो 50 साल तक शायरी की और सिर्फ शायरी के लिये ही जिये लेकिन जितनी मकबूलियत उनके इस शेर ने हासिल की वह उनके किसी शेर को नहीं मिली यानी कि सदि के 100 चुनिंदा शेर में उनका यह शेर भी शामिल हो गया ।
वो ज़ब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सज़ा पाई।

1974 में उनका यह शेर जब पहली बार ऑल इंडिया रेडियो से ब्राडकास्ट हुआ, तो मुल्क भर में आम फेम शेर बन गया। आल इंडिया रेडियो से बाडकास्ट होने के बाद सबसे पहले इस शेर को अपनी तकरीर में जम्मू-कशमीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने पढ़ा। इसके बाद तो शेर मकबूलियत की बुलंदी पर पहुंचता रहा। दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शवयात्रा के दौरान टीवी कमेंट्रेटर कमलेश्वर ने यह शेर बार बार दोहराया। इन्द्र कुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद इस शेर को अपने संबोधन में प्रयोग किया। मौजूदा प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इस शेर को अपने संबोधन में पढ़ा है। यह शेर लोकसभा की कार्यवाही में दर्ज है। जिसे कई संसद सदस्यों ने अनेक अवसरों पर प्रयोग किया है। सियासी गलियारों तक पहुंचने के बाद इस शेर को अपने अपने तरीके से पेश करते हुए कुछ कथित शायरों ने इसे अपना बताने का सिलसिला छेड़ दिया। औ कई किताबों में इस तरह पेश भी किया। हालांकि मीडिया से जुड़े खैरख्वाह और जाति कोशिश के चलते शेर की हिफाजत की जा सकी। खुशी और तसल्ली इस बात की है कि जहां लोग शेर को जानते हैं, वहीं शेर के खालिक के रूप में मुजफ्फर रजमी का नाम भी जानते हैं।
मुजफ्फर रज्मी ने हमेशा समाजी मसाईल पर शायरी की उनकी शायरी में भूख के अहसास हैं फाकों से भरी जिंदगी है । आज के दौर में शायरी जब एक पेशा बन गई है इस दौर में भी उन्होंने अपने आपको प्रोफेशनलिज्म को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और एक गुमनाम सी जिंदगी बसर करके गुजर गये । सच्चाई का अलंबरदार लम्हों के तीरों से छलनी होकर मरते.मरते सदियों का नारा बन जाता है। रज़्मी ने जदीद शायरी की धुन में बुजुर्गो की रिवायत से कभी बगावत नहीं की। नामचीन शायर राहत इंदौरी ने एक बार कहा था कि रज्मी साहब मुशायरों में रिवायती और क्लासिकी ग़ज़ल की जान थे। रज़्मी साहब खुमार बाराबंकीए अलम मुज़फ़्फ़रनगरी और मुशीर ङिांझानवी की कड़ी के शायर थे। जिंदगीभर उर्दू अब की खिदमत करने वाले रज़्मी की अपने आशियाने की इच्छा उन्हीं के साथ चली गई। अपनी खुद्दारी के चलते उन्होंने किसी के सामने अपने हाथ नहीं फैलाया। घर में उनके तीन बेटों के अलावा उनकी एक पुत्री है। पुत्री के निकाह की इच्छा और अपनी छत की इच्छा लिए वह इस दुनिया से रुखसत हो गए। और कह गये कि ......
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाकी
अगली नस्लों को दुआ देके चला जाऊंगा।
रज्मी साहब के तीन गजल संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें से एक किताब का विमोचन डा. मनमोहन सिंह ने 2004 में प्रधानमंत्री कार्यालय में किया । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मुजफ्फर रज़्मी की शायरी के मुरीद थे। प्रधानमंत्री से उनकी दो बार मुलाकात हो चुकी थी। उनकी सादगी और शायराना अंदाज के कायल प्रधानमंत्री ने तीसरी बार उनसे मिलने की इच्छा जताई थी। एक माह पूर्व ही पीएमओ कार्यालय से उनके पास कल आई थी। रज्मी को दो दिन बाद अमेरिका जाना था जहां पर वे कई मुशायरे में शिरकत करते लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था । मुजफ्फर रज़मी वर्ष 1996 में नगरपालिका परिषद रूड़की से सेवानिवृत हुए थे तथा वह वर्ष 1991 में कैराना नगरपालिका परिषद में कार्यालय अधीक्षक पद पर कार्यरत रहे। लेकिन जिंदगी भर एक आशियाने की उन्हें दरकार रही जो उन्हें आखिरी वक्त तक भी नहीं मिल पाया। लेकिन उनके सोच और फ़िक्र की गली से लेकर संसद तक हमेशा हुकूमत रहेगी। अब रज्मी साहब तो रहे नहीं लेकिन उनकी शायरी हमें वक्ती मसायल पर हमेशा याद आती रहेगी और रज्मी को खिराजे अकीदत उनके ही शेर के साथ क्योंकि अब उन्हें मौत ने जमींदार कर दिया है अब वे भी दो गज जमीं के मालिक हैं ।
कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया
इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया।
दो ग़ज़ सही मगर ये भी मिल्कियत तो है
ऐ मौत तूने मुझको ज़मींदार कर दिया।
वसीम अकरम
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