सोमवार, 16 अप्रैल 2012

और राज करेगी खल्क ए खुदा

दरबारे वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जायेंगे
कुछ अपनी सजा को पहुंचेंगे, कुछ अपनी जजा ले जायेंगे.
ऐ जुल्‍म के मारो, लब खोलो, चुप रहने वालों चुप कब तक
कुछ हश्र तो इनसेउट्ठेगा, कुछ दूरतो नाले जायेंगे.
ऐ खाकनशीनो, उठ बैठो, यह वक्‍त करीब आ पहुंचा है
... जब तख्‍त गिराये जायेंगे, जब ताज उछाले जायेंगे.
अब टूट गिरेंगीं जंजीरें, जब जिन्‍दानों की खैर नहीं,
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टालेजायेंगे.
कटते भी चलो, बढते भी चलो, बाजू भी बहुत हैंसर भी बहुत
चलते ही चलो, कि अब डेरे मंजिल पेही डाले जायेंगे.
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फैज अहमद फैज-

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

नये मिज़ाज की शायरी



ग़ज़ल की नई दुनिया में एक आवाज़शायर अशोक मिज़ाज की है, यह हिन्दी मंे उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है. उनके ऊपर उर्दू के ख्यातिनाम शायर बशीर बद्र का वरद हस्त रहा है. उनके अपने शब्दों में उन्होंने ग़ज़ल को मीर से बशीर बद्र तक और शमशेर से दुष्यंत तक महसूस करने के बाद एक ऐसा रास्ता चुनने की कोशिश की है जो इन दोनों एहसास के बीच से होकर जाता है यानि उर्दू और हिन्दी ग़ज़ल के मध्य एक सेतु के रूप में उभरने की ! क्या उनकी कोशिशें परवान चढ़ीं ? और उन कोशिशों की साहित्यिक हैसियत वास्तव में क्या है ? उनके इस वक्तव्य के साथ हमें इस संग्रह को इसी नज़रिये से देखना होगा.
हिन्दी और उर्दू भाषा के मध्य संतुलन कायम करने की कोशिश करने वालों को, चाहे वह गोपालदास नीरज हो या दुष्यंत दोनों ही भाषाओं के विद्वान समीक्षक/रचनाकार खुले दिल से अपनाते नहीं है, और भविष्य में वह दोनों भाषा साहित्य में अपनी अदबी हैसियत को सदा तलाश करते रहते हैं. ये पीड़ा एक उम्र गुज़रने के बाद सामने आती है और उम्र भर सालती है. 
अशोक की शायरी यूं तो उर्दू लबो लहज़े की शायरी है लेकिन उसमें कथ्य के स्तर पर कहीं कहीं नये ख़्याल नई भंगिमायें भी अलौकिकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती. यह ग़ज़लें इस तथ्य का खण्डन करने में भी भली भांति सक्षम है कि ग़ज़ल का मिज़ाज पूर्णतः समर्पण वादी होता है. अतः उपर्युक्त विचार व धारणायें परम्परागत ग़ज़लों के संदर्भ में ही न्यायोचित ठहराये जा सकते हैं, अत्याधुनिक ग़ज़लों के सम्बंध में नहीं., परम्परागत ग़ज़ल की इसी जड़ प्रथा के कारण डाॅ. इबादत बरेलवी ने लिखा है- ग़ज़ल एक जागीरदाराना दौर की पैदावार है इसलिये मौजूदा बदलते हुए हालात में उसका वजूद बाकी नहीं रह सकता. किसी जगह यह बात पेश की जाती है कि ग़ज़ल जमाने-जाहिलियत की यादगार है, वो एक नीम बहशी सिनफे-अदब है इसलिये वो तहजीबो-तमद्दुन की तरक्की का साथ नहीं दे सकती. कोई यह राय देता है कि ग़ज़ल का मैदान वसीअ नहीं है. इसमंे गहरे और दकीक खयालात को पेश नहीं किया जा सकता. इसलिये वो दौरे-जदीद के तकाजों को पूरा नहीं कर सकती. कोई कहता है कि इसके दामन में अमलियतों-इफादियत नहीं. वो जिन्दगी में इनफआलियत (शर्मिन्दगी) पैदा करती है. वो तरक्की के रास्ते में हाइल होती है. वो अमल से रोकती है. वो इन्सान को गुमराह करती है. वो एक खास तबके के जज्बातों-अहसासात की तर्जुमानी है. उसने कभी जि़न्दगी को नहीं संवारा. उसने जि़न्दगी के अमली पहलुओं की तर्जुमानी कभी भी नहीं की, इसलिये इसका होना न होना सब बराबर है. उसको जिन्दा रहने का कोई हक हासिल नहीं.“ ”(28) डाॅ. इबादत बरेलवी के इन विचारों में अधिकांश स्वप्रमाणित है. गालिब ने खुद ग़ज़ल के क्षेत्र को बहुत सीमित तथा शेर के दो मिसरों में अपनी बात कह पाना बेहद मुश्किल माना था और इसमें भी दो राय नहीं कि ग़ज़ल एक विशिष्ट वर्ग में प्रचलित थी तथा उस विशिष्ट वर्ग के लिये मानसिक विलासिता का साधन थी. अपने परम्परागत स्वरूप से नये युग की संवेदनाओं को व्यक्त करना ग़ज़ल के लिये सहज और संभव न था. अतः नये युग के ग़ज़लकारों ने युग की आवश्यकताओं के अनुरूप ग़ज़ल के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तनों की आवश्यकता प्रतिपादित करते हुए यह दृष्टिकोण सामने रखा कि“ ”ग़ज़लों में केवल प्रेम और लौकिक प्रेम का ही वर्णन हो सकता है यह मान लेना भ्रान्ति पूर्ण है और भी विषयों की चर्चाऐं इस काव्यरूप में हो सकती हैं.वस्तुतः कोई काव्यरूप किसी विशिष्ट भावाभिव्यंजना के लिए ही हो सकता है, यह मानना ही अवैज्ञानिकता का परिचायक है.“ ”(29) अतः नयेे रचनाकारों ने परम्परागत ग़ज़ल की जड़ता के विपरीत कथ्य की व्यापकता व विविधता के साथ अपनी रचनाधर्मिता के लोकोन्मुख होने का प्रमाण दिया है. डाॅ.उर्मिलेश की निम्नांकित ग़ज़ल, ग़ज़ल सम्बन्धी नवीन मान्यताओं को व्यक्त करने में सक्षम हैं-नई भावभूमि, नई भंगिमा, नये रदीफ काफियों के साथ शिल्पगत सजगता बरतते हुए, नई दिशायें ढूंढने व भाषाई विवाद से दूर रहने का आग्रह, ग़ज़ल के रूप परिवर्तन के संदर्भ में नयी पीढ़ी की मान्यताओं को स्पष्ट करता है. नयी पीढ़ी के रचनाकार ग़ज़ल के परम्परागत स्वरूप और परम्परागत अवधारणाओं को उलटने के लिये किस कदर उत्सुक थे, इसकी छलक उनके शेरों से प्रच्छन्न होती है-
सुना चुका हूँ जो किस्सा नहीं सुनाऊंगा
नयी है रात, दिया भी नया जलाऊंगा. 
(31)
अनवर शऊर
~
डॉ.महेन्द्र अग्रवाल नये मिज़ाज की शायरी