50 साल से उर्दू अदब
की खिदमत करने वाले मशहूर शायर मुजफ्फर रज्मी का पिछले माह 19 सितंबर को निधन हो
गया वे 76 साल के थे । मुजफ्फर रज्मी का जन्म शामली के कैराना में 1 अगस्त 1936 को
हुआ था । घर वालों ने इनका नाम मुजफ्फर इस्लाम रखा जो शायर बनने के बाद मुजफ्फर
रज्मी हो गया । और फिर इसी नाम ने मुजफ्फरनगर के कैराना को विश्व में पहचान दिलाई
। लेकिन रज्मी साहब अपनों के बीच गुमनाम
जिंदगी जीते रहे। पूरा जीवन मुल्क की खिदमत करने बावजूद हिंदुस्तानी सरकार ने उन्हें काई भी पुरस्कार नहीं दिया। हालांकि मुजफ्फर रज़्मी को 2011 में जिला
प्रशासन मुजफ्फरनगर द्वारा फख्रे मुजफ्फरनगर पुरस्कार से पचास हजार रुपए की आर्थिक
सहायता देकर जरूर सम्मानित किया गया था।
फकीराना
अंदाज में जिंदगी गुजारने वाले मुजफ्फर रज्मी ने यूं तो 50 साल तक शायरी की और
सिर्फ शायरी के लिये ही जिये लेकिन जितनी मकबूलियत उनके इस शेर ने हासिल की वह
उनके किसी शेर को नहीं मिली यानी कि सदि के 100 चुनिंदा शेर में उनका यह शेर भी
शामिल हो गया ।
वो ज़ब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सज़ा पाई।
1974 में उनका यह शेर जब पहली बार ऑल इंडिया रेडियो से ब्राडकास्ट हुआ, तो मुल्क भर में आम फेम शेर बन गया। आल
इंडिया रेडियो से बाडकास्ट होने के बाद सबसे पहले इस शेर को अपनी तकरीर में
जम्मू-कशमीर के पूर्व मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने पढ़ा। इसके बाद तो शेर
मकबूलियत की बुलंदी पर पहुंचता रहा। दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की
शवयात्रा के दौरान टीवी कमेंट्रेटर कमलेश्वर ने यह शेर बार बार दोहराया।
इन्द्र कुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद इस शेर को अपने संबोधन
में प्रयोग किया। मौजूदा प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने इस शेर को अपने
संबोधन में पढ़ा है। यह शेर लोकसभा की कार्यवाही में दर्ज है। जिसे कई संसद सदस्यों
ने अनेक अवसरों पर प्रयोग किया है। सियासी गलियारों तक पहुंचने के बाद इस शेर को
अपने अपने तरीके से पेश करते हुए कुछ कथित शायरों ने इसे अपना बताने का सिलसिला छेड़
दिया। और कई किताबों में
इस तरह पेश भी किया। हालांकि मीडिया से जुड़े खैरख्वाह और जाति कोशिश के चलते शेर
की हिफाजत की जा सकी। खुशी और तसल्ली इस बात की है कि जहां लोग शेर को जानते हैं, वहीं शेर के खालिक के रूप में मुजफ्फर रजमी
का नाम भी जानते हैं।
मुजफ्फर रज्मी ने हमेशा
समाजी मसाईल पर शायरी की उनकी शायरी में भूख के अहसास हैं फाकों से भरी जिंदगी है
। आज के दौर में शायरी जब एक पेशा बन गई है इस दौर में भी उन्होंने अपने आपको
प्रोफेशनलिज्म को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और एक गुमनाम सी जिंदगी बसर करके गुजर
गये । सच्चाई
का अलंबरदार लम्हों के तीरों से छलनी होकर मरते.मरते सदियों का नारा बन जाता है।
रज़्मी ने जदीद शायरी की धुन में बुजुर्गो की रिवायत से कभी बगावत नहीं की। नामचीन
शायर राहत इंदौरी ने एक बार कहा था कि रज्मी साहब मुशायरों में रिवायती और
क्लासिकी ग़ज़ल की जान थे। रज़्मी साहब खुमार बाराबंकीए अलम मुज़फ़्फ़रनगरी और मुशीर
ङिांझानवी की कड़ी के शायर थे। जिंदगीभर उर्दू अब की खिदमत करने वाले
रज़्मी की अपने आशियाने की इच्छा उन्हीं के साथ चली गई। अपनी खुद्दारी के चलते
उन्होंने किसी के सामने अपने हाथ नहीं फैलाया। घर में उनके तीन बेटों के अलावा
उनकी एक पुत्री है। पुत्री के निकाह की इच्छा और
अपनी छत की इच्छा लिए वह इस दुनिया से रुखसत हो गए। और कह गये कि ......
मेरे दामन में अगर कुछ न रहेगा बाकी
अगली नस्लों को दुआ देके चला जाऊंगा।
अगली नस्लों को दुआ देके चला जाऊंगा।
रज्मी साहब के तीन गजल संग्रह प्रकाशित
हुए जिनमें से एक किताब का विमोचन डा. मनमोहन सिंह ने 2004 में प्रधानमंत्री
कार्यालय में किया । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह मुजफ्फर रज़्मी की शायरी
के मुरीद थे। प्रधानमंत्री से उनकी दो बार मुलाकात हो चुकी थी। उनकी सादगी और
शायराना अंदाज के कायल प्रधानमंत्री ने तीसरी बार उनसे मिलने की इच्छा जताई थी। एक
माह पूर्व ही पीएमओ कार्यालय से उनके पास कॉल आई थी। रज्मी को दो दिन बाद
अमेरिका जाना था जहां पर वे कई मुशायरे में शिरकत करते लेकिन कुदरत को कुछ और ही
मंजूर था । मुजफ्फर रज़मी
वर्ष 1996 में नगरपालिका
परिषद रूड़की से सेवानिवृत हुए थे तथा वह वर्ष 1991 में कैराना नगरपालिका परिषद में कार्यालय अधीक्षक पद
पर कार्यरत
रहे। लेकिन
जिंदगी भर एक आशियाने की उन्हें दरकार रही जो उन्हें आखिरी वक्त तक भी नहीं मिल
पाया। लेकिन उनके सोच और फ़िक्र की गली से लेकर संसद तक हमेशा हुकूमत रहेगी। अब
रज्मी साहब तो रहे नहीं लेकिन उनकी शायरी हमें वक्ती मसायल पर हमेशा याद आती रहेगी
और रज्मी को खिराजे अकीदत उनके ही शेर के साथ क्योंकि अब उन्हें मौत ने जमींदार कर
दिया है अब वे भी दो गज जमीं के मालिक हैं ।
कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया
इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया।
दो ग़ज़ सही मगर ये भी मिल्कियत तो है
ऐ मौत तूने मुझको ज़मींदार कर दिया।
वसीम अकरम
साधना न्यूज़
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