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नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली में पैदा हुऐ आलमी शोहरतयाफ्ता शायर मुनव्वर
राना किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं।
इनके बुज़ुर्ग बरसों से रायबरेली में मदरसे में पढ़ाने का काम करते थे मगर जब मुल्क
का बँटवारा हुआ तब मुनव्वर राना के दादा – दादी पकिस्तान चले गये और मुनव्वर राना के अब्बू मरहूम सैयद अनवर अली अपनी ज़मीं से मुहब्बत के चक्कर में पकिस्तान
नहीं गये ।
हालात ने उनके हाथ में ट्रक का स्टेरिंग
थमा दिया और इनकी माँ मजदूरी करने लगी अच्छा भला परिवार
मुल्क के टुकड़े होने के बाद ग़ुरबत की चाद्दर में लिपट गया। ये वो दिन थे जब उनकी खेलने की उम्र थी लेकिन हालात
ने मुनव्वर राना को बचपन में ही जवान कर दिया। मुनव्वर राना ने अपनी किताब बदन सराय
में लिखा है कि मेरे अब्बू ट्रक चलाते थक जाते थे उन्हें नींद आती थी और मुमकिन है उन्होंने बहुत से ख़्वाब देखें हो मगर
अम्मी से नींद
कौसों दूर थी लिहाज़ा अम्मी ने कभी
ख़्वाब नहीं देखे। मुनव्वर साहेब के वालिद ने 1964 में अपना ट्रांसपोर्ट का छोटा सा कारोबार कलकत्ते में शुरू किया और 1968
में मुनव्वर राना भी वालिद के पास
रायबरेली से कलकत्ते आ गये ।
मुनव्वर
साहब ने कलकत्ता के मोहम्मद जान स्कूल से हायर सेकेंडरी और उमेश चन्द्र कालेज से बी.कॉम.किया । इनके अब्बू शायरी के शौकीन
थे सो शायरी
की तरफ़ झुकाव वाज़िब था मुनव्वर साहब
के वालिद नहीं चाहते थे कि वे शायर बने पर तक़दीर के
लिखे को कौन टाल सकता है जदीद (आधुनिक ) शायरी को नया ज़ाविया जो मिलना था , ग़ज़ल जो मैखाने से
कभी बाहर नहीं निकली थी ,
जो कोठों से कभी नीचे नहीं उतरी थी ,महबूब के गेसुओं में उलझी ग़ज़ल को नया आयाम जो मिलना था। मुनव्वर न चाहते हुए भी शायर हो गये, शुरूआती दिनों में वे प्रो. एज़ाज़ अफ़ज़ल
साहेब से कलकत्ते में इस्लाह लेते थे और उनका तख़ल्लुस था '
आतिश' यानी
क़लमी नाम था मुनव्वर अली'आतिश'
। बाद में लखनऊ में उनकी मुलाक़ात
वाली आसी साहेब से हुई जो मुनव्वर राना के बाकायदा उस्ताद हुए। मुनव्वर अली"आतिश"को नया नाम मुनव्वर राना उनके
उस्ताद वाली आसी ने
ही दिया मुनव्वर राना के बारे में वाली
आसी साहब ने पीपल छांव में लिखा है कि वह जहां जाता है लोग उसे सर आंखों पर उठा
लेते हैं वह सबका चहीता बन जाता है ये किसी एक शहर या कस्बे का किस्सा नहीं बल्कि
पूरे हिंदुस्तान का यही हाल है फिर मैं सोचता हूं कि शोहरतें सबके मुकद्दर मैं
कहां होती हैं ।
उन्हें
शायरी और गजल से किस हद तक मौहब्बत है इस बात का अंदाजा सिर्फ इसी लगाया जा सकता
है कि रायबरेली उनके घर का नाम भी गजल गांव रख दिया है और उन्होंने अपने ट्रांसपोर्ट
का नाम भी गजल गजल ट्रांसपोर्च रखा है। सियासत पर तंज करते हुऐ मुनव्वर राना कहते
हैं कि –
सियासत किस हुनर मंदी से सच्चाई
छिपाती है
कि जैसे सिसकियों का दर्द शहनाई
छिपाती है
उनसे मिलिये जो यहां फेरबदल
वाले हैं
हमसे मत बोलिये हम लोग गजल वाले
हैं।
उनकी शायरी में रिश्तों की एक ऐसी सुगंध है जो हर उम्र और हर वर्ग के आदमी
के दिलो दिमाग़ पर छा जाती है। गज़ल जिसका शाब्दिक अर्थ है महबूब से बातचीत।
अधिकतर शायरों ने ‘औरत’ को सिर्फ़ महबूबा समझा। मगर मुनव्वर राना ने औरत को औरत समझा। औरत जो बहन है, बेटी है, और माँ होने के साथ साथ शरीके-हयात भी है। उनकी शायरी में रिश्तों
के ये सभी रंग एक साथ मिलकर ज़िंदगी का इंद्रधनुष बनाते हैं। वे हिंदुस्तान के ऐसे
अज़ीम-ओ-शान शायर हैं जिसने ‘माँ’ की शख़्सियत को ऐसी बुलंदी दी है जो पूरी दुनिया में बेमिसाल है। माँ के लिए लिखे गये उनके शेर माँ की ममता के लहराते सागर से
निकाले गये बेशकीमती मोती है जिन्हें उन्होंने माँ नामक संकलन की अंजुलि में भर, दुनिया की हर माँ के चरणों में अर्पित कर दिया है। मुनव्वर राना
कहते हैं कि ” मैं दुनिया के
सबसे मुकद्दस और अज़ीम रिश्ते का प्रचार सिर्फ इसलिए करता हूँ कि अगर मेरे शेर पढ़
कर कोई भी बेटा माँ की खिदमत और ख्याल करने लगे तो शायद इसके बदले में मेरे कुछ
गुनाहों का बोझ हल्का हो जाए“।
सच्ची शायरी के तरफदार मुनव्वर राना ने हमेशा घर आंगन की शायरी
की है। जहां दुनिया भर के शायर औरत को सिर्फ महबूबा की नजर से देखते हैं वहीं
मुनव्वर राना ने अपना महबूब अपनी माँ को माना है। उनकी शायरी में कैफी आजमी से
लेकर अली सरदार जाफरी तक शामिल हैं। भूखा किसान , बहनों की राखी, मजदूर का पसीना, ट्रेन
में झाड़ू लगाते बच्चे, बालू पर खेलते बच्चे, इन सब मौजू पर उसने शायरी की है। और
यही वजह है कि ये सारी बातें उन्हें बाकी शायर से अलग बनाती हैं। गजल पढ़ते वक्त
जब कभी कभी गुर्राई हुयी आवाज में राना का यह कहना कि आप दाद दें या ना दें मुझे
मालूम है कि मैं शायर अच्छा हूं लोगों को तालियां बजाने पर मजबूर कर देता है।
स्टेज पर पहुंचकर जब वो शेर सुनाता है तो यकायक लोगों की आंखें भीग जाती हैं। मुनव्वर
राना ने सिर्फ माँ ही नहीं बल्कि जहां कहीं जुल्म हुआ वहां अपने अंदर के शायर को
जिंदा रखा गुजरात में हुऐ नरसंहार पर 2002 में उन्होंने कहा कि
दुश्मनी ने काट
दी सरहद पर सारी जिंदगी
दोस्ती गुजरात
में रहकर मुहाजिर हो गई।
जमाने में बढ़ती हुयी फिरका परस्ती उन्हें सताती है, तकलीफ देती
है, तो मुल्क की हिफाजत उन्हें इबादत के वक्त भी याद रहती है वतन से मौहब्बत देखनी
हो तो उनका शेर देखीये।
मदीने तक में
हमने मुल्क की खातिर दुआ मांगी
कोई ये पूछले
इसको वतन का दर्द कहते हैं ।
या फिर
ये देख कर
पतंगे भी हैरान हो गई
अब तो छतें भी
हिंदु मुसलमान हो गई।
गंगा जमुनी तहजीब की इससे अच्छी मिसाल और क्या पेश की जा सकती
है।
सगी बहनों का
जो रिश्ता है हिंदी और उर्दू में
कहीं दुनिया की
दो जिंदा जबानों में नहीं मिलता
वे आगे कहते हैं
लिपट जाता हूं
माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में
गजल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है।
भाजपा, आरएसएस द्वारा मुसलमानों को पाकिस्तानी कहने पर उसके
अंदर का शायर चीख पड़ता है और वह कह उठता है कि –
बदन में दौड़ता
सारा लहु ईमान वाला है
मगर जालिम
समझता है कि पाकिस्तान वाला है।
बस इतनी बात पर
उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के एक
बर्तन पर आईएसआई लिक्खा है
माँ पर कहे उनके शे'र पूरी दुनिया में मक़बूल है :-----
चलती - फिरती हुई आँखों में अजाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, माँ देखी है
तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक
मुझको अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी
बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान छुआ
उठाया गोद में माँ ने तो आसमान छुआ
ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी माँ सजदे में रहती है
चलती - फिरती हुई आँखों में अजाँ देखी है
मैंने जन्नत तो नहीं देखी है, माँ देखी है
तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक
मुझको अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी
बुलंदियों का बड़े से बड़ा निशान छुआ
उठाया गोद में माँ ने तो आसमान छुआ
ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूं मेरी माँ सजदे में रहती है
बटवारे
के दर्द को मुनव्वर राना ने बखूबी समझा है और एक किताब की शक्ल में एक लंबी गजल
जिसमें 500 शेर हैं लिख डाली। जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों में खूब मकबूल
हुयी मुनव्वर राना ने इस गजल में गांव, बस्ती, शहर, जंगल, जमीन, बचपन सभी का इस
तरह जिक्र किया है कि पढ़ते वक्त आंखें का नम हो जाना लाजिमी हो जाता है।
मुहाजिर है मगर हम एक दुनिया छोड़ आये है
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आये है
वुजू करने को जब भी बैठते है याद आता है
कि हम उजलत में जमुना का किनारा छोड़ आये है
तयम्मुम के लिए मिट्टी भला किस मुंह से मांगें
कि हम शफ्फाक़ गंगा का किनारा छोड़ आये है
हमें तारीख़ भी इक खान - ऐ- मुजरिम में रखेगी
गले मस्जिद से मिलता एक शिवाला छोड़ आये है
ये खुदगर्ज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आये भतीजा छोड़ आये है
न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आये
न जाने कितनी आंखों को छलकता छोड़ आये है
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आये है
वुजू करने को जब भी बैठते है याद आता है
कि हम उजलत में जमुना का किनारा छोड़ आये है
तयम्मुम के लिए मिट्टी भला किस मुंह से मांगें
कि हम शफ्फाक़ गंगा का किनारा छोड़ आये है
हमें तारीख़ भी इक खान - ऐ- मुजरिम में रखेगी
गले मस्जिद से मिलता एक शिवाला छोड़ आये है
ये खुदगर्ज़ी का जज़्बा आज तक हमको रुलाता है
कि हम बेटे तो ले आये भतीजा छोड़ आये है
न जाने कितने चेहरों को धुंआ करके चले आये
न जाने कितनी आंखों को छलकता छोड़ आये है
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी
कि हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं
मुनव्वर राना की अब तक 18
किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें से 17 गजल संग्रह और एक गध है उन्होंने अपनी
पहली प्रकाशित पुस्तक का नाम भी गजल गांव रखा , इसके अलावा मुहाजिरनामा,बगैर नक्शे
का मकान, कहो जिल्ले इलाही से, फिर कबीर, पीपल छांव, मोर पांव, बदन सराय, माँ,
सफेद जंगली कबूतर आदी उनकी प्रमुख कृतियों में से एक हैं। एक बार भाजपा सांसद तरुण
विजय ने उन्हें राष्ट्र कवि घोषित करने की बात कही। लेकिन अफसोस राष्ट्र कवि तो
दूर की बात हकूमत ने उन्हें आज तक किसी बड़े सम्मान से नहीं नवाजा। खुद मुनव्वर
राना ने अपनी पुस्तक नये मौसम के फूल में इस दर्द को बयां करते हुए कहा कि उर्दू
वालों ने मेरी शायरी, शख्सियत और किताबों को नजरअंदाज किया है। और असल दुख तो उस
वक्त होता है जब हिंदी वाले भी मेरी किताबों के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं।