शुक्रवार, 15 जून 2012

शायद कभी ख्वाबों में मिलें


शायद कभी ख्वाबों में मिलें .......
गायकी और शायरी दो अलग-अलग फन हैं और अपनी अलग छाप, लेकिन जब दोनों फनों के उस्ताद संगीत के सुरों पर एक साथ सवार होते हैं तो एक-दूसरे की बदौलत उन्हें दुनियां में अलग पहचान मिलती है। पाकिस्तान के मशहूर गजल गायक मेंहदी हसन पर भी यही बात लागू होती है, जिन्होंने मुल्क की सरहद के इस पार आकर न केवल तमाम शायरों को मशहूरियत दी, खुद भी उनकी इबारतें गुनगुनाकर मशहूर हो गए। इतने कि न केवल गायकी के कद्रदानों, बल्कि सुरों की समझ रखने वाले शायरों ने भी धीरे-धीरे उन्हें अपनी हस्ती का सामांबना लिया। यही वजह रही कि उनके निधन की खबर पाते ही मेंहदी हसन के हुनर से जुड़ी तमाम यादों के साथ उनसे बिछड़ने का दर्द उमड़कर बाहर आने लगा। गजल मध्यम दर्जे की आवाज चाहती है, ऊंची नहीं। मेंहदी हसन की आवाज ऐसी ही थी जिसमें छिपे दर्द को लोग अपना जैसा समझते थे। यह फैज अहमद फैज, निदा फाजली, बशीर बद्र वगैरह की शायरी का कमाल था जिसके बूते मेंहदी को गजल गायकी में अलग मुकाम हासिल हुआ। उनकी गायकी में जगह-जगह इतना ठहराव है कि लोग शब्दों के मायने दिल में उतारते चलें। वे खानदानी गायक थे क्योंकि गायकी उन्हें पिता से विरासत में मिली थी। जो मेंहदी की शोहरत थी, उनके जाने के बाद और किसी में नजर नहीं आती।
लता की बदौलत मीर तकी मीर की रूह जिंदा है। उनकी गजल रफ्ता-रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामां हो गएमेरे दिल के करीब है। उनकी आवाज में गजब के लोच के साथ ऐसा दर्द था जो सुनने वालों को उसका बखूबी एहसास कराता था ।
 जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मरकर भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा। कुछ ऐसा ही था मेहदी हसन का अंदाज व गजल के प्रति उनका प्यार। गजल गायिकी के धुरंधर को अब उनके चाहने वाले भले ही लाइव ना सुन पाएं, लेकिन उनकी आवाज उनकी गाई गजलों के माध्यम से हमेशा लोगों के दिलों में जिंदा रहेगी। मशहूर गजल गायक मेहदी हसन का बुधवार 13 जून  को कराची के एक अस्पताल में निधन हो गया है। उनके निधन से एक बार फिर गजल गायिकी में सूनापन सा छा गया है। मेहदी हसन वह शख्स थे जिन्हें हिंदुस्तान व पाकिस्तान में बराबर का सम्मान मिलता था। इन्होंने अपनी गायिकी से दोनों देशों को जोड़े रखा था।
राजस्थान के झुंझुनूं जिले के लूणा गाव में 18 जुलाई 1927 को जन्मे हसन का परिवार संगीतकारों का परिवार रहा है। हसन के अनुसार कलावंत घराने में उनसे पहले की 15 पीढि़या भी संगीत से ही जुड़ी हुई थीं। कहते है ना कि स्कूल के पहले बच्चा अपने घर में ही प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर लेता है,वैसे ही हसन ने भी अपने पिता व संगीतकार उस्ताद अजीम खान व चाचा उस्ताद इस्माइल खान से संगीत की प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। भारत-पाक बंटवारे के बाद उनका परिवार पाकिस्तान चला गया। वहा उन्होंने कुछ दिनों तक एक साइकिल दुकान में काम किया और बाद में मोटर मेकैनिक का भी काम कर लिया, लेकिन संगीत को लेकर उनके दिल में जो जुनून था वह कभी कम नहीं हुआ।
1950 का दौर उस्ताद बरकत अली, बेगम अख्तर, मुख्तार बेगम जैसों का था, जिसमें मेहंदी हसन के लिए अपनी जगह बना पाना आसान  नहीं था। एक गायक के तौर पर उन्हें पहली बार 1957 में रेडियो पाकिस्तान में बतौर ठुमरी गायक पहचान मिली। इसके बाद मेहदी हसन ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। फिर क्या था फिल्मी गीतों की दुनिया में व गजलों के समुंदर में वह छा गए।
गौरतलब है कि 1957 से 1999 तक सक्रिय रहे मेहदी हसन ने गले के कैंसर के बाद पिछले 12 सालों से गाना लगभग छोड़ ही दिया था। उनकी अंतिम रिकॉर्डिग 2010 में सरहदें नाम से आई जिसमें फरहत शहजाद ने अपना लेख दिया।
तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है,वर्ष 2009 में इस गाने की रिकार्डिग पाकिस्तान में की गई। दूसरी ओर उसी ट्रेक को सुनकर वर्ष 2010 में लता मंगेशकर ने अपनी रिकॉर्डिग मुंबई में शुरू कर दी। इस तरह से दोनों का एक युगल अलबम तैयार हो गया।
मेहंदी हसन ने अपनी गायिकी से गजल की दुनिया में एक अलग ही पहचान बना रखी थी। उन्हें अपनी गायकी की वजह से संगीत की दुनिया में कई सम्मान प्राप्त हुए हैं। हसन की हजारों गजलें कई देशों में जारी हुई। भले ही हसन आज हमारे बीच नहीं रहे लेकिन पिछले 40 साल से भी अधिक समय से संगीत की दुनिया में गूंजती शहंशाह-ए-गजल की आवाज की विरासत संगीत की दुनिया को हमेशा रौशन करती रहेगी। लेकिन कहना यह भी पड़ेगा कि मेहदी हसन के निधन के साथ ही वाकई एक अध्याय का अंत हो गया है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उन जैसी गायकी और उन जैसी समझ रखने वाला अब कोई नहीं दिखता. जब तक वो जिंदा थे, तब भी ऐसे लोग कम ही दिखते थे जो ग़ज़ल की बारीकियों को समझते हों. मसलन ग़ज़ल क्या है, ग़ज़ल को कैसे गाना चाहिए, कौन-कौन से राग हैं जिनमें आप अच्छी ग़ज़ल गा सकते हैं और किन रागों से परहेज़ करना चाहिए. मेहदी हसन को ग़ज़ल गाते वक्त एक राग से दूसरे राग में जाने और हर राग को बखूबी निभाने में महारथ हासिल थी. ग़ज़ल के भाव को समझ कर उसे गाना आसान नहीं होता. इसमें पेचीदगियां आती हैं. बहुत से गायक कोई भी गजल चुन लेते हैं और उसे गाने लगते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता.

गज़ल का भविष्य
मेहदी हसन का जाना इसलिए भी सालता है कि अब ग़ज़ल को गाने वाले ऐसे लोग नहीं दिखते हैं. ग़ज़ल के पुराने शौकीनों को दिल बहलाने के लिए आज भी मेहदी हसन या गुलाम अली साहब की 15-20 साल या उससे पुरानी गज़ल़ों को सुनना पड़ता है. ग़ज़ल में नया कुछ नहीं आ रहा है. मेहदी हसन साब को सुन कर बहुत से लोग ग़ज़ल गायक बने हैं. इनमें जगजीत सिंह और हरिहरन जैसे गायकों के नाम आते हैं. साथ ही तलत अजीज भी हैं. मेहदी हसन प्रेरणा के एक बड़े स्रोत रहे हैं. लेकिन दुर्भाग्य है कि अब शायद ग़ज़ल गाने का उतना चलन नहीं रहा. आज ग़ज़ल गाने वाले और अच्छी ग़ज़ल गाने वाले बहुत कम हैं. कुछ लोग कोशिश कर रहे हैं. ग़ज़ल गा रहे हैं, लेकिन सच यही है कि अच्छी ग़ज़ल गाने वाले अब हैं नहीं. अगर हैं भी तो वैसे मेहदी हसन या गुलाम अली जैसा रुतबा हासिल नहीं कर पाते. मुझे यहां पर मुनव्वर राना का एक शेर याद आ रहा है जो हसन गजल गायकी में प्रासांगिक है ।
हमेशा चाहने वाले को आस पास रही
हमारे बाद गज़ल बहुत उदास रही ।
भारत और यादें
पिछले माह ही राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से फोन पर बात की और हसन के रिश्तेदारों के कुछ और वीजा मंजूर करने का आग्रह किया था, क्योंकि उनके बेटे मोहम्मद आरिफ ने गहलोत से ये आग्रह किया था. दरसल राजस्थान सरकार ने उनके परिवार से सम्पर्क कर हसन को इलाज के लिए भारत लाने और पूरा खर्चा उठाने का प्रस्ताव दिया था. लुना में ही मेहदी हसन के पिता की कब्र है. भारत ने पिछले महीने ही हसन, उनके बेटे, बहू और एक चिकित्सा सहायक के लिए हाथों हाथ वीजा मंजूर कर दिया था. मगर उनकी सांसों ने इतना साथ भी नहीं दिया कि वो भारत आ पाते. नारायण सिंह को ये याद नहीं कि वो आखिरी बार मेहदी हसन से कब मिले थे.
1980 में मेहदी हसन लुना आए और लोगों से मिले थे. उन्होंने सुख-दुख बांटा और बचपन की यादों में खोए रहे. वो तब अपने पुरखों की कब्र तक गए, दुआ की और उस पर कुछ निर्माण कार्य भी करवाया. उस वक्त लुना में मेहदी हसन के साथ तीन दिन बिताने वाले इजाजुल नबी हसन बताते हैं कि वो कभी सामने वाले को अहसास ही नहीं होने देते थे कि इतने बड़े कलाकार हैं. वो सब लोगों से प्यार से गले मिले और अपनापन दिखाते थे. मेहदी हसन का पूरा परिवार संगीत और गायकी से जुड़ा रहा है. वो इसी रेगिस्तान में लुना गांव में 1927 में पैदा हुए और विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए. मगर अपनी जड़ों को कभी नहीं भूले. ना केवल उनकी हसरत थी कि वो अपने पुश्तैनी गांव में दुनिया-जहान से बेखबर एक बच्चे 'मेहदी' की तरह गली गली घूमे, बल्कि पूरे गांव की भी ये ही मुराद थी. अब कौन बताएगा जुदाई का सबब, मेहदी हसन तो नहीं रहे.
पुरुस्कार
v  तमन्ना ए इम्तियाज : जनरल अय्यूब खान
v  प्राइड आफ परफारमेंस : जनरल जिया उल हक़
v  हिलाल ए इम्तियाज : जनरल परवेज मुशर्रफ
v  सहगल पुरुस्कार  :  जालांधर , ( भारत ) 1979
v  गोरखा दक्षिण बाहु – नेपाल (1983 )
मेंहदी हसन की कुछ यादगार गज़लें
v  अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें..
v  दिल की बात लबों पर लाकर ।
v  दिल में तूफान छिपाये बैठा हूँ।
v  एक बार चले आओ।
v  गुलों में रंग भरे बादे-ए – नौ बहार चले (शायर फैज अहमद फैज )
v  जब भी आती है तेरी याद कभी शाम के बाद ।
v  मैं नज़र से पी रहा हूँ ।
v  पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है ।
v  रफ्ता रफ्ता वो मेरी हस्ती का सामां हो गये।
v  रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ ।
v  ये धुआं सा कहां से उठता है ।
v  जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहुंगा ।
साझा संस्कृति की आखिरी कड़ी : हसन भारत और पाकिस्तान की साझा संस्कृति का प्रतिनिधत्व करने वाली कुछ मशहूर हस्तियों की अंतिम कड़ी में से एक थे। उनके निधन के साथ ही गीतों और शायरी का एक युग समाप्त हो गया । आये कुछ अब्र कुछ शराब आए..’, ‘पत्ता पत्ता बूटा-बूटा..’, ‘दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है..’ ‘रंजिश ही सही..और दिल की बात लबों पर लाकर..मेहंदी हसन की कुछ ऐसी गजलें हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता।

वसीम अकरम
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एंव संचार विश्विधालय , नोएडा
09927972718 Email :-  journalistwasimakram@gmail.com


















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