रविवार, 11 नवंबर 2012

दीवाली से गायब दीप


दीवाली से गायब दीप
हर बार की तरह इस बार भी दीपों का त्योहार दीपावली आ गया। ना जाने इस एक साल के कालचक्र में हम में से कितने ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपनों को इस बीच खोया है। लेकिन वक्त की उन कड़वीं यादों को भूल कर हम दीवाली मनाऐं। सवाल दीवाली का हो और उसमें दीप ना हों तो कैसा लगेगा ? मुझे याद है हमारे गांव में लोग दो तरह की दीवाली मनाते थे यानि कि एक छोटी दीवाली और एक बड़ी दीवाली दोनों ही दिन गांव के प्रत्येक घर की मुडेरों पर दिये जलाये जाते थे वो दिये मिट्टी के बने होते थे जिन्हें गांव की देशी भाषा में दीबला कहा जाता है। अब कुछ वर्षों से हम इलैक्ट्रॉनिक बल्ब का इस्तेमाल का करते हैं हद तो यह कि अब इसका इस्तेमाल ग्रमीण क्षेत्रों में भी हो रहा है। किसी बुजुर्ग के मुंह से सुना था कि दीये की गंध से पर्यावरण में फैली गंदी हवा पाक साफ हो जाती। ठीक उसी तरह जिस तरह एक चम्मच देशी घी 100 मीटर के दायरे को प्रदूषण रहित कर देता है। दीवाली पर जब दिये जलाये जाते थे तब शहर हो या गांव लोगों को सांस लेने में घुटन महसूस नहीं होती थी। लेकिन अब पटाखों की गंध आंखों में चुभन पैदा कर देती है। दीपों के त्यौहार पर ना जाने कितने करोड़ रुपया का बारूद स्वाहा हो जाता है जो वातावरण में अलावा प्रदूषण के कुछ और नहीं करता। उधर, दीबले बनाने वाले कुम्हार अब उंगलियों पर गिने जा सकते हैं जिनके बनाये दीबलों से शहर का गांव का वातावरण शुद्ध होता था अब वे भी आधुनिकता के इस दौर में रोजी रोटी कमाने के लिये कोई और धंधा अख्तियार कर चुके हैं। जबकि मिट्टी का बर्तन हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। लेकिन इस इलैक्ट्रॉनिक दीवाली में उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली है।
पहले घर घर दीप जलते थे और लोग बहुत कमी से खतरनाक बीमारियों से सामना करते थे। आधुनिक युग की नई ऩई बीमारियां डेंगू, इंसेफ्लाईटिस, शुगर, आदी जैसी खतरनाक बीमारियां उस वक्त नहीं थी। और तो और शहर में एक या दो अस्पताल होता था और गांव में तो सिर्फ एक हकीम जी वैध जी हुआ करते थे जिनके पास तमाम बीमारियों का इलाज था। लेकिन अब जगह जगह डॉक्टर और अस्पताल हैं फिर भी आधे से ज्यादा लोग बीमार दिखाई पड़ते हैं। समय बदला अब मौसमी फूल नहीं कागजी फूल मिलते हैं मिट्टी के बने दिये नहीं विधुत झालर घरों की शोभा बढ़ाती हैं। जिस तरह इंसान का संस्कृति से मोह भंग हो रहा है उसी तरह आपस का प्रेम व भाईचारा भी खत्म हो रहा है। भाग दोड़ भरी इस जिंदगी में सबको रेडीमेड माल चाहिये त्योहार का मतलब सिर्फ खरीदारी बनकर रह गया है। होला या दीवाली, ईद हो या क्रिसमस कार्पोरेट घरानों की इसमें चांदी काट रहे हैं
वसीम अकरम - 9927972718